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हमारे राजनीतिक दलों ने एकजुट होने के बजाय




 पिछले हफ्ते तीन युवकों और एक महिला ने संसद की सुरक्षा में सेंध (breached Parliament’s security) लगा दी और सदन के अंदर व बाहर हंगामा मचाया और “भगत सिंह अमर रहें” और “तानाशाही नहीं चलेगी” जैसे नारे लगाए.

सुरक्षा पर चिंता को लेकर हमारे राजनीतिक दलों ने एकजुट होने के बजाय इस घटना पर राजनीतिक हुल्लड़ शुरू कर दिया. विपक्ष का दावा है कि इससे पता चलता है कि नौजवान भारत सरकार की नीतियों से नाराज हैं. सरकार का कहना है कि विपक्ष हाल के चुनावों में हार के बाद फिर से मतदाताओं को अपनी तरफ खींचने के लिए अराजकता फैला रहा है और मुद्दे का राजनीतिकरण कर रहा है.

यह घटना यह भी दिखाती है कि हमारी संसद किस तरह हंगामे और विरोध प्रदर्शन का अड्डा बन गई है, इसके अलावा और कुछ नहीं है. हर गुजरते साल के साथ संसद की निष्क्रियता बढ़ती जा रही है क्योंकि इसकी बनावट में कुछ गंभीर, बुनियादी खामियां हैं.

जवाबदेही का सवाल

इस पर ध्यान दें कि किसके पास नियंत्रण है. हमारी संसद में राष्ट्रपति और दो सदन शामिल हैं– लोकसभा और राज्यसभा- राष्ट्रपति के पास किसी भी सदन को बुलाने, स्थगित करने या भंग करने की ताकत है.

लेकिन उद्घाटन भाषण देने के अलावा राष्ट्रपति संसद में कहीं नहीं हैं. हमारे संविधान ने राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री के अधीन बना दिया है.

इससे जवाबदेही की एक चक्रीय समस्या पैदा होती है, माना जाता है कि संसद प्रधानमंत्री को नियंत्रित करती है, लेकिन..

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प्रधानमंत्री लोकसभा में बहुमत दल का नेता होता है, जो सदन के स्पीकर का चुनाव करता है और इस तरह सदन को नियंत्रित करता है. जब बहुमत मजबूत हो-जैसा कि अभी है, प्रधानमंत्री राज्यसभा के पीठासीन अधिकारी उपराष्ट्रपति को भी चुन सकते हैं. तो, असल में, संसद भी प्रधानमंत्री के अधीन है.

यह समस्या भारत के ब्रिटिश संसदीय प्रणाली अपनाने से बहुत पहले से उजागर थी. ब्रिटिश संविधान विशेषज्ञ आइवर जेनिंग्स ने 1941 में लिखा था, “सिद्धांत यह है कि सदन सरकार को नियंत्रित करता है. हालांकि, हकीकत यह है कि सरकार के बहुमत दल का कोई भी सदस्य सरकार को गिराना नहीं चाहता है.

प्रधानमंत्री का न सिर्फ संसद पर मजबूती से नियंत्रण है, लेकिन न तो वह और न ही उनका मंत्रिमंडल सदन में किसी भी सवाल का जवाब देने के लिए किसी संवैधानिक दायित्व के अधीन है. सांसदों के सवाल पूछने और मंत्रियों के जवाब देने का चलन पूरी तरह परंपरा पर आधारित है. यहां तक कि इंग्लैंड में भी ब्रिटिश प्रधानमंत्री संसद में सवालों का जवाब देने के लिए संवैधानिक रूप से बाध्य नहीं हैं.

यह चलन 1961 में हेरॉल्ड मैकमिलन के शासनकाल से शुरू होकर लगातार जारी है और ब्रिटिश कानूनों में भी साफ-साफ ऐसा नहीं लिखा है.

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प्रतिनिधित्व का अभाव

एक और बुनियादी खामी यह है कि संसद हमारे विशाल और विविधता वाले देश का पूरा प्रतिनिधित्व नहीं करती है, जो इसे असल में राष्ट्रीय चर्चाओं के लिए अनुपयुक्त बनाती है.

दूसरे लोकतांत्रिक देशों की तुलना में यह आबादी का पूरा प्रतिनिधित्व नहीं करती है और इसका उत्तर की तरफ एकतरफा झुकाव है. औसतन, एक सांसद 24 लाख नागरिकों की नुमाइंदगी करता है, जबकि अमेरिका में यह संख्या 7.48 लाख है; पाकिस्तान में 5.76 लाख, और जापान में सिर्फ 2.73 लाख है.

राजनीतिशास्त्र के विद्वान मिलन वैष्णव और जेमी हिंटसन का आकलन है कि 2011 की जनगणना के आधार पर लोकसभा में सांसदों की संख्या 545 से बढ़कर 848 होनी चाहिए. उत्तर प्रदेश में 143 और केरल में केवल 20 सीटें होनी चाहिए. लोकसभा की सीटों में 1973 के बाद से बदलाव नहीं किया गया है.

इस अपूर्ण-प्रतिनिधित्व वाली संसद को और भी निष्क्रिय बनाने वाली बात यह है कि हमारे दल-बदल विरोधी कानून में सांसदों को अपने विवेक से मतदान करने की इजाजत नहीं है. उनके लिए पार्टी के आदेश का पालन करना जरूरी है.

भारत के जाने-माने संविधान विशेषज्ञ एजी नूरानी ने लिखा है कि यह “विधायिका के सदस्यों को बंधुआ बना देता है.” इस संसदीय प्रणाली के तहत प्रधानमंत्री को बहुमत की गारंटी दी जाती है.

इससे एक घातक मेल बनता है- एक संस्था जिसे प्रधानमंत्री द्वारा नियंत्रित किया जाता है, जिसे उनके चुने हुए पीठासीन अधिकारियों द्वारा चलाया जाता है, जिसमें सांसदों के बहुमत की गारंटी होती है, जिन्हें उनकी पार्टी के आदेश के मुताबिक मतदान करना होता है.


  • 1990 में चंद्रशेखर सरकार ने दो घंटे से भी कम समय में 18 बिल पारित किए

  • 2001 में 32 घंटे में 33 बिल पास हुए थे

  • 2007 में लोकसभा ने 15 मिनट में तीन विधेयक पारित किए

  • 2021 में 20 बिल बिना किसी चर्चा के पास हुए

लोकसभा अब उतनी देर तक नहीं चलती जितनी पहले चलती थी; 1952-70 तक यह साल में 121 दिन तक चलती थी, लेकिन अब औसत सिर्फ 68 दिन का है.

क्या हम ‘निर्वाचित निरंकुशता' की ओर बढ़ रहे हैं?’

सांसदों के निलंबन के मामले में भी यही होता है. स्पीकर के पास शक्ति होती है और वह वही करता है, जो बहुमत चाहता है. यह प्रथा 1954 में शुरू हुई जब राज नारायण-भारत के पूर्व स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री को राज्यसभा से निलंबित कर दिया गया; उन्हें कुल चार बार निलंबित किया गया.

1962 में कांग्रेस सांसद गोडे मुराहारी को सदन के मार्शल बाहर लेकर गए थे. जहां UPA शासन में 50 निलंबन हुए थे, वहीं NDA अब तक उससे दोगुने से ज्यादा निलंबन कर चुका है. पिछले हफ्ते स्पीकर ने एक सांसद को अभद्र व्यवहार के लिए निलंबित कर दिया, लेकिन वह शख्स उस समय सदन में था ही नहीं.

हम दशकों से लगातार बेख्याली में “निर्वाचित निरंकुशता” (electoral autocracy) की ओर बढ़ रहे हैं-एक तमगा जो स्वीडन के वी-डेम इंस्टीट्यूट द्वारा 2021 में भारत को दिया गया है. अगर हम सचमुच एक बेहतर लोकतंत्र की ख्वाहिश रखते हैं, तो हमें अपने सिस्टम की बुनियादी खामियों को दुरुस्त करना होगा.

(लेखक दिव्य हिमाचल समूह के संस्थापक और CEO हैं और ‘Why India Needs the Presidential System’ के लेखक हैं. इनसे @BhanuDhamija पर संपर्क किया जा सकता है. यह एक निजी ब्लॉग है. यह लेखक के निजी विचार हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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